‘उरी: दि सर्जिकल स्ट्राइक’ रिव्यू: हिन्दुस्तानी फ़ौज के नाम लिखा गया आवेगों से भरा प्रेमपत्र

‘उरी : दि सर्जिकल स्ट्राइक’ भारत की फ़ौज के नाम लिखा गया आवेगों से भरा प्रेम पत्र है। लेकिन अगर आप उम्मीद कर रहे हैं कि फ़िल्म सीमा पर गोली खाने को तैयार खड़े इन बहादुर नौजवानों के दिलोदिमाग की उलझनों पर भी रोशनी डालेगी, तो आपकी उम्मीद बेमानी है। लेखक-निर्देशक आदित्य धर की कहानी में सेना के जवान सुपरहीरो हैं जो मौका आने पर शोक तो मनाते हैं, लेकिन इस अतिवादी पालों में बंटी लड़ाई में कभी अपनी जगह को लेकर शक या सवाल नहीं करते। कैथरीन बिग्लो की ‘ज़ीरो डॉर्क थर्टी’, जिसका असर यहाँ दिखाई देता है, से उलट यहाँ किसी आत्मपरीक्षण की गुंजाइश नहीं है। ‘उरी’ में सैनिक मोर्चे पर हैं। उनमें देशभक्ति का जुनून भरा है और तेज़ पार्श्वसंगीत उनका वाहक है। इसीलिए जब स्पेशल फोर्सेस पैरा कमांडो मेजर विहान शेरगिल सवाल पूछते हैं, “हाऊ इज़ दी जोश?” तो उनकी टीम के साथ दर्शकों का भी यही जवाब होता है, “हाई”।
‘उरी’ की कहानी 2016 में भारतीय सेना द्वारा पाकिस्तान की सीमा में स्थित आतंकी ठिकानों पर की गई सर्जिकल स्ट्राइक पर आधारित है। यह सर्जिकल स्ट्राइक जवाबी कार्यवाही थी उरी में सेना छावनी पर हुए उस आतंकी हमले की, जिसमें 19 जवान शहीद हुए थे। इनमें से कई तो नींद से भी नहीं जाग पाये थे। यह फ़िल्म इस घटना का कल्पित रूपांतर पेश करती है। आदित्य धर यहाँ हमारे भीतर की भावनाओं और देशभक्ति को जगाने में कोई कसर नहीं छोड़ना चाहते। इसीलिए जब विहान को इस मिशन पर जाने के लिए कहा जाता है, तो उसे खुद एक पारिवारिक त्रासदी में उलझा दिखाया गया है। इस तरह यह निजी हो जाता है। और जब विहान अपनी अल्ज़ाइमर्स की मरीज़ माँ के साथ ज़्यादा वक़्त बिताने की ख्वाहिश जताते हुए फ़ील्ड छोड़ने की बात करता है, तो खुद प्रधानमंत्री उसे याद दिलाते हैं कि देश भी तो माँ है। मुझे कहना होगा, रजित कपूर ने यहाँ खास अदा के साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की भूमिका निभाई है। परदे पर प्रधानमंत्री की उपस्थिति चंद सवाल पूछने और प्रतिक्रिया देने तक सीमित है। असली हीरो की भूमिका में यहाँ गोविंद सर को दिखाया गया है। परेश रावल द्वारा निभाया यह किरदार राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल से प्रेरित है। गोविंद सर ही पूरे वेग के साथ यह घोषणा करते हैं कि यह ‘नया हिंदुस्तान’ है। ये घर में घुसेगा भी और मारेगा भी।
फ़िल्म तथ्यों और कल्पना के बीच खेलती है। एक ओर लड़ाई की वास्तविक तस्वीर है तो दूसरी ओर ‘टॉप गन’ स्टाइल में हैलीकॉप्टर से उतरते जवानों के स्लो-मोशन शॉट्स हैं। फ़िल्म के पहले हिस्से में आदित्य यथार्थ और स्टाइल दोनों के धागे बखूबी संभालते हैं, जिसके लिए फ़िल्म के सिनेमैटोग्राफ़र मितेश मीरचंदानी को भी श्रेय दिया जाना चाहिए। कहानी में बुलन्दी है और कथानक के मोड़ जाने-पहचाने होते हुए भी पसन्द आते हैं। उरी के आतंकी हमले को पूरे कौशल के साथ फ़िल्माया गया है। ऐसा लगता है जैसे किसी ने आपको सीधा युद्धक्षेत्र के बीचोंबीच फेंक दिया हो। इस पल का रहस्य रोमांच उत्तेजना से भर देने वाला है। विक्की कौशल सेना के जवान की भूमिका में खूब जंचे हैं। उन्होंने अपने शरीर पर मेहनत की है जो साफ़ दिखाई देती है। सुगठित शरीर के साथ उनमें नैसर्गिक भोलापन भी है, जो उनके किरदार को पूरा करता है। जहाँ वो सेना के जवानों की अंतिम यात्रा में रोते हैं, वो दृश्य देखने वाला है। कड़क वर्दी, तनी हुई रीढ़ और आँखों में आँसू। नायिकाओं कीर्ति कुल्हरी और यामी गौतम के हिस्से अप्रासंगिक भूमिकाएं ही आयी हैं। हाँ, पैरा कमांडो की भूमिका में मोहित रैना बढ़िया लगे हैं।
लेकिन आखिर में इस यथार्थवादी आतंकी ड्रामा और भड़कीली एक्शन थ्रिलर के बीच का संतुलन बिगड़ जाता है। फ़िल्मकार हमें बताते हैं कि यह फ़िल्म उन तथ्यों पर आधारित है जो पब्लिक डोमेन में पहले से मौजूद हैं। मुझे नहीं पता कि फ़िल्म में दिखाया गया कितना सच है, लेकिन बहुत सारी जगहों पर ये इतना एकांगी लगता है कि मन में सवाल उठने लगते हैं। जैसे डीआरडीओ में काम करनेवाले एक इंटर्न की ऑपरेशन में महत्वपूर्ण भूमिका दिखाना, पाकिस्तान की ओर से हर हमलावर का निशाना हमेशा चूक जाना। फ़िल्म का क्लाइमैक्स सीधा‘ज़ीरो डार्क थर्टी’ से उठाया लगता है जहाँ सैनिक रात्रिकालीन चश्मे लगाए एक कमरे से दूसरे की तलाशी ले रहे हैं। लेकिन यहाँ भी आदित्य ज़माने से चली आ रही हिन्दुस्तानी हीरो की खांटी हीरोगिरी के प्रदर्शन से बच नहीं पाए हैं और विहान को अन्तत: आमने-सामने की हाथापाई में उतरना ही पड़ता है।
फ़िल्म अलग-अलग अध्यायों में बंटी है। जैसे-जैसे हम क्लाईमैक्स की तरफ़ बढ़ते हैं कहानी ऑपरेशन रूम, इंटेरोगेशन सेंटर और पाकिस्तानी तरफ़ के सभाकक्षों के बीच घूमने लगती है। इसके साथ मौके की तीव्रता बढ़ाने के लिए उल्टी गिनती भी चलती रहती है। लेकिन यहाँ तक पहुँचते पहुँचते कथानक अपनी तीव्रता खो देता है। मुझे लगता है कि अगर फ़िल्म की लम्बाई कुछ छोटी होती, तो कहानी की पकड़ बेहतर होती।+

‘व्हाय चीट इंडिया’ रिव्यू: सौमिक सेन की फ़िल्म को थोड़ी और कल्पना, हिम्मत की ज़रूरत थी

फ़िल्ममेकर्स की मानें तो ‘व्हाय चीट इंडिया’ की कहानी असल तथ्यों में कल्पना की मिलावट कर तैयार की गई है। पिछले कुछ समय से इस किस्म की फैक्ट में फ़िक्शन की मिलावट वाली कहानियाँ बॉलीवुड में खूब पसन्द की जा रही हैं। ‘उरी’, ‘पैडमैन’, ‘संजू’, ‘राज़ी’ और ‘रेड’ जैसी फ़िल्मों का नाम इसी क्रम में गिना जा सकता है। ये फ़िल्में सच्ची कहानियों से अपनी प्रामाणिकता हासिल करती हैं और उनमें कल्पना की मिलावट कर नाटकीयता के चरम तक पहुंचती हैं। लेकिन ये मुश्किल रास्ता है और कई निर्देशक इस पथ पर चलने की कोशिश में पहले फिसल चुके हैं।
‘व्हाय चीट इंडिया’ के निर्देशक सौमिक सेन इस रास्ते पर फ़िल्म की शुरुआत तो बेहतर करते हैं। बात की गहराई सौमिक सेन के कहानी कहने के तरीके की विशेषता नहीं। लेकिन अपने नाटकीय अंदाज़ में ही सही, वे फ़िल्म का दिलचस्प फ़र्स्ट हाफ़ रचते हैं। लेकिन आगे जाकर वे भारी-भरकम बैकग्राउंड म्यूज़िक और सस्पेंस रचने के लिए स्प्लिट स्क्रीन जैसे चलताऊ चक्करों में उलझकर रह जाते हैं। और आखिर में अपने स्टार इमरान हाशमी द्वारा ऐसा भाषण दिलवाने से भी नहीं बच पाते, जिसमें वो अपने सभी अपराधों का ज़िम्मेदार सिस्टम को ठहराता है। पूरी फ़िल्म में इमरान हाशमी, जो इस फ़िल्म के सहनिर्माता भी हैं, के चेहरे पर वही जाना-पहचाना भाव बना रहता है। वही स्वभाव से अच्छे इंसान वाला भाव, जो बस काम बुरे करता है।
देश भर में फैले अपने नकल के धंधे के पीछे राकेश सिंह का तर्क है, ‘सब माया है, सबने खाया है’। अपने को रॉकी कहलाना पसन्द करनेवाला राकेश खुद मेडिकल का एक असफ़ल छात्र है, जो भारतभर में फैले कोचिंग के धंधे का रॉबिनहुड बन जाता है। वो अमीर घरों के मूर्ख बच्चों से पैसा लेकर गरीब घरों के होशियार बच्चों को देता है, और बदले में ये होशियार बच्चे इन अमीर बच्चों की जगह बैठकर उनके एग्ज़ाम लिखते हैं। आखिर इसमें सबकी जीत है।
सौमिक, जिन्होंने इस फ़िल्म की पटकथा भी लिखी है, ने लाखों सपनों की हत्यारी भारत की शिक्षा व्यवस्था का बखूबी ख़ाका खींचा है। कोचिंग इंडस्ट्री की अघोषित राजधानी बना कोटा शहर इसके केन्द्र में है। यहाँ लोन लेकर अपने बच्चों का इन कोचिंग संस्थानों में एडमिशन करवाने वाले परेशान माँ-बाप हैं। बच्चे हैं जिनका काम पाठ्यपुस्तकों को घोलकर पी जाना है। और इन्हीं बच्चों में से कुछ कभी पंखे से लटककर या हाथ की नसें काटकर अपनी जान भी दे देते हैं। इस चक्की में पिस रहे किरदारों के लिए रॉकी बुरा आदमी नहीं, रक्षक है।
कथानक सधी गति से आगे बढ़ता है और किरदार दिलचस्पी पैदा करते हैं। जूही सकलानी, मिश्का शेखावत और सौमिक के लिखे संवाद भी सही जगह चोट करते हैं। अपने स्टार नकलची सत्तू को एक जगह रॉकी बोलता है, ‘अक्लमंद तो तुम हो, नकलमंद बन सकते हो कि नहीं?’ और मेरा पसन्दीदा, ‘मुझे हीरो बनने की कोई इच्छा नहीं है। विलेन बनने का बिल्कुल टाइम नहीं है। खिलाड़ी हूँ, खेल रहा हूँ।’ सत्तू की आँखों में दिखाई देती ईमानदारी और भोलापन भी हमें भावनात्मक रूप से कथा से बाँधे रखता है। स्निग्धदीप चटर्जी ने यहाँ छोटे शहर की नैसर्गिक अच्छाई को ज़िन्दा कर दिया है। सौमिक ने अन्य बारीकियों को भी अच्छे से पकड़ा है जैसे सख़्तजान पिता, चौक में दादी अम्मा की मौजूदगी, बड़े सपने देखनेवाली प्यारी बहन। और रॉकी के मज़ाकिया साइडकिक बबलू की भूमिका में मनुज शर्मा को मिस मत कीजिएगा।
लेकिन इसके बाद फ़िल्म मुम्बई का रुख़ कर लेती है और सैंकड़ों करोड़ के एमबीए घोटाले होने लगते हैं। चमकदार गलियारों में स्लो-मोशन मे चलते किरदार दिखाए जाते हैं। रॉकी के पास मर्सिडीज़ आ जाती है। सत्तू की बहन नूपुर, जो किरदार श्रेया धनवंतरी ने निभाया है, अचानक पहले हाफ़ की भोली सामान्य लड़की से दूसरे हाफ़ की होशियार शहरी लड़की में बदल जाती है। और इमरान हाशमी हैं, तो उनका हमेशा वाला किसिंग सीन तो होना ही है। लेकिन कहानी का ये तमाम बदलाव बहुत ऊबड़खाबड़ और सच कहूँ तो बोरिंग है। एक जगह तो रॉकी वॉल स्ट्रीट के गॉर्डन गेक्को की तरह सूक्ति भी उछालता है, ‘ग्रीड इज़ गुड’। खुद घोटाला इतना अजीबोगरीब और कंफ्यूज़िंग है कि मैं इसे समझ पाने में असमर्थ हूँ। यहाँ सेक्स वर्कर्स, ड्रग्स, गुंडे, बन्दूकें और बिना बात का रोमांटिक नाचगाना, सबकुछ तो है!
पर आखिर में ‘व्हाय चीट इंडिया’ ये नहीं तय कर पाती कि रॉकी फ़िल्म का हीरो है या विलेन। मुझे इससे दिक्कत नहीं है। लेकिन फ़िल्म बार-बार अपना रास्ता बदलती रहती है। और दूसरा हाफ़ तो बहुत ही भटकाव वाला है। जब भी लगता है कि फ़िल्म की कहानी क्लाईमैक्स पर पहुँचने वाली है, फ़िल्म कोई नया मोड़ ले लेती है। इसकी वजह यही है कि ‘व्हाय चीट इंडिया’अपने नायक रॉकी के साथ भी खड़ी है, लेकिन उसे सज़ा भी देना चाहती है। लेकिन ऐसी कहानी कहने के लिए जिस कल्पना और हिम्मत की ज़रूरत होती है, वो ‘व्हाय चीट इंडिया’ के पास नहीं है।
मैं इसे ढाई स्टार देना चाहूँगी

‘मणिकर्णिका: दि क्वीन ऑफ़ झांसी’ रिव्यू: कंगना के निर्भीक अभिनय से रची राष्ट्रवादी फ़िल्म

निर्देशक: क्रिश जगलरमुदी, कंगना रनौत
अभिनय: कंगना रनौत, डैनी डैंजोंग्पा, अंकिता लोखंडे, अतुल कुलकर्णी
सवाल ये है कि एक किंवदंती बन चुकी कहानी को आप फ़िल्म में कैसे बदलेंगे? मणिकर्णिका या कहें झांसी की रानी आज हमारी लोक स्मृति का अभिन्न हिस्सा है। इस योद्धा रानी ने ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ़ अपनी सेना सहित मोर्चा लिया। सन् 1858 में जब समरांगण के मध्य वे वीरगति को प्राप्त हुईं, उनकी उमर बस 29 बरस की थी। उनकी गाथा हमारी साझा चेतना का हिस्सा है। पीठ पर दुधमुंहे बच्चे को बांधे इस योद्धा स्त्री की छवि को हमारे सिनेमा, टेलीविजन, रंगमंच और कविताओं ने अमर कर दिया है। यहाँ तक कि भारत में रिलीज़ होनेवाली पहली टेक्नीकलर फ़िल्म भी सोहराब मोदी की ‘झांसी की रानी’ ही थी, जिसका पहला प्रदर्शन आज से 66 साल पहले सन् 1953 की जनवरी में हुआ था। और भले ही हमें सुभद्रा कुमारी चौहान की कविता पूरी ना याद हो, हम में से प्रत्येक उस अमर पंक्ति से ज़रूर परिचित होगा, ‘खूब लड़ी मर्दानी वो तो, झांसी वाली रानी थी’।
इस गाथा को स्क्रीन पर ज़िन्दा करने के पहली शर्त तो यही है कि इस भूमिका के लिए ऐसा अभिनेता चुना जाए, जो इस अदम्य शौर्य से भरी भूमिका को निभाने में सक्षम हो। इस मोर्चे पर आप कह सकते हैं कि ‘मणिकर्णिका: दि क्वीन ऑफ़ झांसी’ पूरी तरह खरी उतरी है। झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की आइकॉनिक भूमिका में कंगना रनौत साक्षात धधकती आग हैं। उनकी तनी हुई रीढ़, भेदक आँखें देखकर लगता है कि जैसे कोई अदृश्य अदम्य शक्तिपुंज उनके भीतर प्रवेश कर गया है। वे घुड़सवारी करती हैं, तलवारबाज़ी करती हैं, हाथी के मस्तक की सवारी करती हैं और ये सब अत्यंत विश्वसनीय तरीके से अंजाम देती हैं। जब वो कैमरे से सीधे नज़रें मिलाकर घोषणा करती हैं कि वो इस देश के लिए जान भी दे सकती हैं, तो आप युद्ध के मैदान में उनके साथ खड़े होना चाहते हैं। उनका पराक्रम विस्मयकारी है। साथ ही नीना लुल्ला द्वारा रचे गए आभूषण और साड़ियाँ भी मनमोहक हैं – यह ऐसी रानी है जो युद्ध के मोर्चे पर भी मोतियों से सुसज्जित होकर जाती है। और ऐसी दूसरी नायिका ढूंढे से नहीं मिलेगी जो इसे ज़रा भी बचकाना लगे बिना निभा ले जाये।
लेकिन इस किरदार में उतार-चढ़ाव नहीं हैं। किरदार के पहले ही परिचय सीन में वो अकेली शेर को पछाड़कर उसकी सवारी करती दिखायी गयी हैं। संजय लीला भंसाली की फ़िल्मों की स्टाइल में यहाँ एक लंबा पल्लू नायिका के पीछे उड़ता दिखायी देता है। पहले ही फ्रेम से यह स्पष्ट कर दिया गया है कि वो असंभव शक्तियों की धनी नायिका है।  कहानी आगे बढ़ती है और हमें ये भी जानने को मिलता है कि वो पुस्तक प्रेमी, गज़ब की राजनैतिक रणनीतिकार, ममतामयी माँ और स्नेहमयी पत्नी भी हैं। जब उनकी सास उन्हें सीख देती हैं, ‘ध्यान सिर्फ महल और रसोई क्रिया में रख’ तो ये सुनकर हंसने का मन होता है। क्योंकि हमें पता है कि ऐसा नहीं होने वाला।
रानी लक्ष्मीबाई गज़ब का विस्मयकारी किरदार हैं और कंगना ने इसे बख़ूबी निभाया है, फ़िल्म फिर भी लड़खड़ाती है क्योंकि हर तरफ़ सिर्फ़ कंगना ही कंगना हैं। तकरीबन हर सीन बस एक ही उद्देश्य से रचा गया है कि वो रानी की वीरता, उनके चमत्कार या उनकी नेतृत्व क्षमता को रेखांकित कर सके। फ़िल्म शुरुआत में ही साफ़ करती है कि यहाँ ऐतिहासिक प्रामाणिकता का दावा नहीं है और इसे रचने में सिनेमाई आज़ादी ली गयी है। पर फ़िल्म की चाहत है लोक किंवदंती को ज़िन्दा करना। तो यहाँ रानी अल्टीमेट फेमिनिस्ट आइकन हैं, जो अन्य स्त्रियों को तलवार उठाकर रणक्षेत्र में कूदने की प्रेरणा देती हैं। जब उनके पति की मृत्यु होती है तो वे विधवा जीवन के अनुष्ठान को निभाने से इनकार कर देती हैं, क्योंकि देश को उनकी ज़रूरत है। एक जगह वे दर्जनों अंग्रेजों को मौत के घाट उतारने के बाद माँ काली की मूरत के आगे जा खड़ी होती हैं, इसका साफ़ इशारा करते हुए की वे साक्षात माँ काली का ज़िन्दा अवतार हैं।
इससे पहले ‘बाहुबली’ लिख चुके विजयेंद्र प्रसाद की कहानी और पटकथा अन्य किरदारों को उभरने का मौका ही नहीं देती। डैनी डैंजोंग्पा, कुलभूषण खरबंदा, अतुल कुलकर्णी, मोहम्मद ज़ीशान अय्यूब और जिस्सू सेनगुप्ता जैसे बेहतरीन अभिनेता भी यहाँ बस रानी के किरदार को उभारने के उपकरण भर हैं। टेलीविज़न स्टार अंकिता लोखंडे का यह फ़िल्म डेब्यू है, लेकिन उनके करने के लिए यहाँ ज़्यादा कुछ नहीं। अंग्रेज़ भी हमेशा की तरह या तो बचकानी हिंदी बोलनेवाले मूरख किरदार हैं, या क्रूर अन्यायी। एक सीन में रानी को नष्ट करने भेजा गया खलनायक जनरल ह्यूज रोज़ एक तरुण लड़की को सिर्फ़ इसलिए फांसी पर लटका देता है कि उसका नाम भी लक्ष्मी है।
कहानी को किसी भी तरह से यथार्थवादी या जटिलताओं को शामिल करते हुए नहीं सुनाया गया है। यह जानबूझकर सिनेमा के लोकप्रिय मुहावरे में एक महागाथा रचने की कोशिश है। प्रसून जोशी के संवाद राष्ट्रवादी भावनाओं से ओतप्रोत हैं। फ़िल्म की घटनाएँ भले उन्नीसवीं सदी के मध्य में घटित हो रही हों, संवाद बिल्कुल आज के वातावरण को ध्यान में रखकर लिखे गए हैं। इसीलिए जब रानी कहती हैं, ‘मैं तुम्हारी अंतरात्मा की आवाज़ हूँ’ तो वे हमारे भीतर के राष्ट्रभक्त को जगा रही हैं। हालांकि यह इतना बारीकी से नहीं किया गया है, लेकिन काम करता है। कुछ दृश्यों में गहरे असर करनेवाली इमोशनल ताक़त है। शंकर-अहसान-लॉय का संगीत भी इसके असर को दुगुना करता है, ख़ासकर ‘भारत’ शीर्षक गीत।
फ़िल्म इरादों में ‘बाहुबली’ की और खूबसूरती में ‘पद्मावत’ की बराबरी तो नहीं कर सकती, लेकिन भव्यता की यहाँ कोई कमी नहीं। मर्दों के शरीर पर भी आभूषणों की कोई कमी नहीं दिखती और किले-प्रासाद प्रभावशाली हैं। लेकिन त्रुटिपूर्ण सीजीआई वर्क यहाँ दिखाई देता है, ख़ासकर युद्ध दृश्यों में।
लेकिन दो घंटे और अट्ठाईस मिनट लम्बी मणिकर्णिका ज़रूरत से ज़्यादा लम्बी है। इसका निर्देशन दो लोगों के हाथ में रहा और साक्षात्कारों में कंगना रनौत ने दावा किया है कि फ़िल्म का 70 प्रतिशत काम उनका ही किया हुआ है, अगर ऐसा है तो वे एक प्रभावशाली किस्सागो तो ज़रूर हैं लेकिन उनके भीतर का अभिनेता निर्देशक को पीछे कर देता है। अभिनेता कहानी से भी बड़ा बन जाता है।
लेकिन तमाम कमियों के बावजूद ‘मणिकर्णिका’ अभिनेता कंगना रनौत की आज़ाद महत्वाकांक्षाओं का ज़िन्दा सबूत है। मैं उनका अगला काम देखने के लिए इन्तज़ार करूंगी।
मैं इसे तीन स्टार देना चाहूँगी।  

‘गली बॉय’ रिव्यू: मुम्बई शहर की ज़िन्दादिली के नाम लिखा एक चमत्कारिक प्रेम पत्र

निर्देशक: ज़ोया अख़्तर
कास्ट: रणवीर सिंह, आलिया भट्ट, कल्कि कोचलिन, सिद्धान्त चतुर्वेदी, विजय वर्मा, विजय राज
क्या आपके सपनों की उड़ान इससे तय होनी चाहिए कि उनका पूरा होना सम्भव है या नहीं? ‘गली बॉय’ इस सवाल का जवाब एक मज़बूत ‘ना’ के साथ देती है। एक कमाल के सीन में मुराद, जो धारावी में रहनेवाला रैपर है, ड्राइवरी का काम करने वाले अपने पिता को बोलता है कि वो अपने सपनों की उड़ान को किसी हक़ीक़त के पिंजरे में कैद नहीं करेगा। और अगर ज़रूरत पड़ी, तो वो इस हक़ीक़त के पिंजरे को तोड़कर उड़ जाएगा अपने सपनों की ओर।
ज़ोया अख़्तर की इस जादुई फ़िल्म से ये तो बस एक चमत्कारी लम्हा भर है। ‘गली बॉय’ की कहानी झोपड़पट्टी से निकलकर स्टारडम के शिखर पर पहुँचे रियल-लाइफ़ रैपर्स नेज़ी और डिवाइन की ज़िन्दगी से अपना कच्चा माल लेती है। मुम्बई की इस संगीत से भरी दुनिया में हिप-हॉप भी है तो न्यूयॉर्क की सड़कों पर पैदा हुआ आधुनिक प्रतिरोधी संगीत भी। लेकिन ‘गली बॉय’ की सबसे ख़ास बात ये है कि भले ही आप इस संगीतमय दुनिया से पूरी तरह अपरिचित हों, जैसे मैं थी, ये फ़िल्म फिर भी आपको अपनी जादूगरी से विस्मृत कर देगी।
इसका श्रेय जाता है ज़ोया और उनकी उम्दा टीम को − सह लेखक रीमा कागती, संवाद लेखक विजय मौर्य, डाइरेक्टर ऑफ़ फ़ोटोग्राफ़ी जय ओझा, सम्पादक नितिन बैद, प्रॉडक्शन डिज़ाइनर सुज़ैन कैप्लन मेरवांजी, कॉस्ट्यूम डिज़ाइनर अर्जुन भसीन और पूर्णामृता सिंह जिन्होंने इस कहानी को अपनी कला से खूब निखारा है। इसका संगीत भले बाहर से आया हो, इसकी दुनिया बिल्कुल प्रामाणिक और सच्ची है। ‘गली बॉय’ का ज़्यादातर हिस्सा धारावी में फ़िल्माया गया है, लेकिन किसी भी मौके पर सिनेमैटोग्राफ़र जय ओझा इसे संजीदा किस्म की शोख़ी देने की कोशिश नहीं करते।
ये फ़िल्म मुम्बई शहर की ज़िन्दादिली के नाम लिखा गया प्रेम पत्र है। इस पागलपन से भरे जादुई शहर में कुछ भी होना मुमकिन है और ‘गली बॉय’ इसका ही उत्सव है, लेकिन वो समन्दर या गेटवे ऑफ़ इंडिया या मरीन ड्राइव के ट्रेडमार्क स्टॉक शॉट्स के साथ इसे नहीं जोड़ती। क्योंकि शहर के ये जगमग हिस्से मुराद की दुनिया का हिस्सा नहीं। उसकी दुनिया में मटमैला रंग हावी है, तंग गालियाँ हैं और लगातार ये अहसास है कि जैसे कोई भीड़ आपको चारों ओर से दबोच रही है। मुराद के पिता शहर की ‘जगमग’ की बातें करते हैं। लेकिन ये चमकीली दुनिया मुराद की पहुँच से बहुत दूर है। वो तमाम रौशनियाँ शीशे पार हैं और ये ड्राइवर का बेटा अपने पिता की अनुपस्थिति में उनकी जगह को भरता, इस मंहगी गाड़ी में कैद है। बस आख़िर में जाकर वो उस पर अपना नूर बरसाती हैं। नहीं, इसे स्पॉइलर मानकर ना पढ़ें।
ज़ोया और रीमा इस किस्म के नितांत भिन्न संगीत को भी परिचित धुनों में पिरोकर हमारे लिए ज़्यादा सहज सुलभ बनाती हैं। आख़िर ‘गली बॉय’ एक कमिंग-ऑफ़-एज स्टोरी है, जिसमें परिस्थितियों का शिकार किरदार अन्तत: विजेता बनकर निकलता है। हम जानते हैं कि कहानी के अन्त में क्या होगा, लेकिन इस कहानी का मज़ा इसे कहने के तरीके में है।
ज़ोया की सबसे बड़ी खूबी उनकी तीक्ष्ण निगाह है और इसी के चलते वे एक ही सीन में अनगिनत बारीकियाँ भर देती हैं। तो जब मुराद एक आलीशान फ़्लैट का बाथरूम इस्तेमाल करता है तो वो तौलिये को काम में लेने के बाद ठीक वैसे ही मोड़कर रख देता है जैसा वो पहले था, जिससे इस शाही साज-सज्जा में ज़रा भी ख़लल ना पड़े। उधर जब हम मुराद को उसकी प्रेमिका सफ़ीना के साथ पहली बार लोकल बस में देखते हैं, तो उनमें एक लफ़्ज़ भी बातचीत नहीं होती। इसके बदले वो इशारों से ही एक-दूसरे को अपनी बातें समझा देते हैं, जो उनके सालों से चले आ रहे रिश्ते की भीतरी तसल्ली को हमारे सामने ज़ाहिर कर देता है।
सफ़ीना का किरदार आलिया भट्ट द्वारा निभाए अभी तक के सर्वश्रेष्ठ किरदारों में से एक है। वो आत्मविश्वास से भरी है, महत्वाकांक्षी है और ‘गुंडी’ भी है, लेकिन अच्छे अर्थों में। एक पारम्परिक मुस्लिम परिवार से आनेवाली सफ़ीना अपनी पहचान खुद बनाने को लेकर दृढ़निश्चयी है। मुराद से अपने रिश्ते की भावी डगर वो खुद तय करती है। आलिया यहाँ सफ़ीना के किरदार की खूबसूरती से भरी उत्तेजना को अपने अभिनय में बखूबी कैप्चर करती हैं। उसमें एक मोह लेनेवाली अनिश्चितता है। आप कभी नहीं बता सकते कि वो आगे क्या करनेवाली है।
रणवीर भी उतने ही उम्दा हैं। यहाँ उस अतिरंजित स्टार की परछाई भी कहीं नज़र नहीं आती जिसकी भड़कीले कपड़ों में तस्वीरें आप साक्षात्कारों में और इंस्टाग्राम पर देखते आये हैं। मुराद अनिश्चितताओं से भरा है और बहुत अलग है। उसे नहीं पता की इस दुनिया में उसकी सही जगह कौनसी है। लेकिन रैप में उसको उसकी आवाज़ मिल जाती है और वो अपने गुस्से को कविता में बदल देता है। रणवीर की आँखों में यहाँ लालसा भी है, उम्मीद भी और उदासी भी। वो मुराद को किसी हीरो माफ़िक प्ले नहीं करते। यहाँ ना अकड़ है दिखावा। ये वाला रणवीर तो गर्वीली पीड़ाओं से भरा है। मुराद और सफ़ीना के बीच घटते प्रेम दृश्य दिल को छू लेनेवाली नज़ाकत से भरे हैं।
फ़िल्म को सबसे ज़्यादा फ़ायदा ये बात पहुँचाती है कि निर्देशक ज़ोया अख़्तर यहाँ नायक या नायिका के किरदारों को बाक़ी कास्ट के बदले ज़रा भी विशेष ट्रीटमेंट नहीं देती हैं। फ़िल्म विजय वर्मा के साथ शुरु होती है, वे फ़िल्म में मुराद के दोस्त मोईन के किरदार में हैं, जो मुम्बई की किसी सड़क पर रात के गुप्प अँधेरे में चले जा रहे हैं। उनके पीछे रणवीर आता है, बिना किसी लम्बी-चौड़ी भूमिका को बाँधे। हम समझते हैं कि ज़िन्दा धड़कते किरदारों से भरी इस फ़िल्म में मुराद बस एक और किरदार भर है।
यहाँ छोटे छोटे किरदार भी बहुत शानदार हैं, जैसे वो दूर के रिश्तेदार जो मुराद को भलमनसाहत में सुझाव देते हैं कि अगर उसे सिंगर बनना ही है तो वो ग़ज़ल में ट्राई क्यों नहीं करता? वर्मा, मुराद को सिखानेवाले मेंटर एमसी शेर की भूमिका में सिद्धान्त चतुर्वेदी और क्रूर पिता की भूमिका में विजय राज, सब तो यहाँ कमाल हैं। यह फ़िल्म के कास्टिंग निर्देशकों करण माली और नंदिनी श्रीकेंट की प्रतिभा का सबसे बड़ा सबूत है कि हर छोटा-बड़ा किरदार फ़िल्म में यूँ लगा है जैसे वो इसी भूमिका को करने के लिए बना था।
आखिर में फ़िल्म का संगीत जो फ़िल्म में बाकायदा एक समूचे किरदार की हैसियत रखता है। कुल 18 धुनों से रचा यह साउंडट्रैक जिसके निर्माण में 54 रचनाकार शामिल रहे, और जिसे गायक-लेखक अंकुर तिवारी ने सुपरवाइज़ किया, अपने आप में एक नायाब खूबसूरत चीज़ है। तिवारी ने रैप को ठीक ही ‘एक लेखकीय क्रांति’ कहा है बजाये इसे ‘संगीतमय क्रांति’ कहने के। इसके शब्द किसी हथौड़े से हमारी चेतना पर पड़ते हैं। यह प्रतिरोध की कविता है जो आपके भीतर भी ज़रूर कुछ बदलेगी।
हाँ एक बात से सावधान रहियेगा − कुछ रैप के युद्ध फ़िल्म में ऐसे हैं जो चलते हैं तो बस चलते ही चले जाते हैं। ‘गली बॉय’ कुल 2 घंटे 36 मिनट लम्बी है और आप इस अवधि में कभी बेचैन भी होंगे। फ़िल्म की सबसे कमज़ोर कड़ी अमीर, अमेरिका से आयी गोरी रक्षक स्काई का किरदार है जिसकी भूमिका कल्कि कोचलीन ने निभायी है। यह किरदार ठीक से लिखा नहीं गया है और कल्कि अपनी बनते जितना बेहतर हो सकता है यहाँ करती हैं। लेकिन जब भी आपका फ़िल्म से ध्यान हटने लगता है, ज़ोया एक इमोशन से भरा दमदार सीन लाकर हमें वापस कहानी में खींच लेती हैं।
आखिर में अपने आँसू पोंछते हुए मैं ना सिर्फ़ मुराद की तमाम मुरादें पूरी होने की कामना कर रही थी, फ़िल्म के हर अच्छे-बुरे किरदार के लिए मेरे मन में यही दुआ थी। यहाँ तक कि मुराद के दुष्ट पिता के लिए भी।
यही इस फ़िल्म का असली जादू है। मैं इसे चार स्टार देना चाहूँगी।

hello

hello evary one